नई दिल्ली. केंद्र और राज्य में अलग-अलग पार्टियों की सरकार होने की स्थिति में कई बार टकराव की स्थिति पैदा हो जाती है. व्यवहार में केंद्र की ओर से (सांविधानिक तौर पर राष्ट्रपति द्वारा) राज्यों में गवर्नर या राज्यपालों की नियुक्ति की जाती है. आमतौर पर देखा जाता है कि राज्यपाल केंद्र के अनुसार ही फैसले लेते हैं. इससे कई बार सेंटर और स्टेट के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है. इसमें सबसे बड़ा हथियार होता है राज्य विधानसभा की ओर से पास विधेयकों को राष्ट्रपति की सलाह के लिए रोक लेना. मतलब राज्य सरकार की ओर से पास बिल को राज्यपाल मंजूरी नहीं देते और उसे प्रेसिडेंट के पास भेज दिया जाता है. कई बार ऐसे विधेयक लंबे समय तक राष्ट्रपति के पास ही लंबित रह जाते हैं. हाल में ही तमिलनाडु और केरल के मामलों में ऐसा देखा गया है, पर अब ऐसा नहीं होाग. सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक लैंडमार्क जजमेंट में राष्ट्रपति द्वारा ऐसे विधेयकों पर फैसला लेने की अवधि तय कर दी है. प्रेसिडेंट को अब तीन महीने के अंदर ऐसे बिल पर निर्णय लेना होगा. फिर चाहे वे इसे मंजूरी दें या फिर खारिज कर दें.सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि राष्ट्रपति को राज्यपालों द्वारा भेजे गए विधेयकों पर तीन महीने के भीतर फैसला करना होगा. यह ऐतिहासिक फैसला तब आया जब कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल के लंबित विधेयकों को मंजूरी न देने के फैसले को पलट दिया. शुक्रवार को यह आदेश सार्वजनिक किया गया था. तमिलनाडु मामले में फैसला सुनाते हुए जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की पीठ ने कहा कि अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा किए गए कार्यों का निर्वहन न्यायिक समीक्षा के लिए उत्तरदायी है. अनुच्छेद 201 के अनुसार, जब राज्यपाल किसी विधेयक को सुरक्षित रखता है, तो राष्ट्रपति उसे या तो मंजूरी दे सकता है या अस्वीकार कर सकता है. हालांकि, संविधान इस निर्णय के लिए कोई समयसीमा तय नहीं करता है. सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि राष्ट्रपति के पास ‘पॉकेट वीटो’ नहीं है और उन्हें या तो मंजूरी देनी होती है या उसे रोकना होता है.अनुच्छेद 201 का मामलासुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, ‘कानून की स्थिति यह है कि जहां किसी कानून के तहत किसी शक्ति के प्रयोग के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं है, वहां भी उसे उचित समय के भीतर प्रयोग किया जाना चाहिए. अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा शक्तियों का प्रयोग कानून के इस सामान्य सिद्धांत से अछूता नहीं कहा जा सकता.’ सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने फैसला सुनाया कि अगर राष्ट्रपति किसी विधेयक पर फैसला लेने में तीन महीने से अधिक समय लेते हैं, तो उन्हें देरी के लिए वैलिड वजह बताना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘हम यह निर्धारित करते हैं कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा उनके विचार के लिए सुरक्षित रखे गए विधेयकों पर उस तारीख से तीन महीने के भीतर फैसला करना होगा, जिस दिन उन्हें यह प्राप्त हुआ है.’ सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर राष्ट्रपति समय-सीमा के भीतर कार्रवाई करने में विफल रहते हैं, तो प्रभावित राज्य कानूनी सहारा ले सकते हैं और समाधान के लिए अदालतों का दरवाजा खटखटा सकते हैं.’तय समयसीमा में एक्शन जरूरीयदि किसी विधेयक की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाया जाता है, तो सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि कार्यपालिका को जज की तरह काम नहीं करना चाहिए. इसके बजाय ऐसे मुद्दों को अनुच्छेद 143 के तहत निर्णय के लिए शीर्ष अदालत को भेजा जाना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि किसी विधेयक में विशुद्ध रूप से कानूनी मुद्दों से निपटने के दौरान कार्यपालिका के हाथ बंधे होते हैं और केवल संवैधानिक न्यायालयों के पास ही विधेयक की संवैधानिकता के संबंध में अध्ययन करने और सिफारिशें देने का विशेषाधिकार है.’ शीर्ष अदालत का यह आदेश तब आया जब उसने फैसला सुनाया कि तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने डीएमके सरकार द्वारा पारित 10 विधेयकों पर सहमति न देकर अवैध रूप से काम किया है. सुप्रीम कोर्ट का निर्णय यह स्थापित करता है कि राज्यपालों को एक तय समय सीमा के भीतर विधेयकों पर कार्रवाई करनी चाहिए