इस होली पर दिल्ली में हाईकोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के घर में आग लगी. कहा जा रहा है कि वहां जले हुए नोटों के 4-5 बोरे मिले, लेकिन अगली सुबह यह नकदी गायब हो गई. जस्टिस वर्मा इसे साजिश बता रहे हैं और कह रहे हैं कि यह पैसा उनके परिवार का नहीं था. यह मामला भारतीय न्यायपालिका का सबसे बड़ा विवाद बन गया है. इससे कई सवाल उठ रहे हैं कि क्या जजों को नियुक्त करने और हटाने का तरीका सही है? क्या इस मामले से नरेंद्र मोदी सरकार को जजों की नियुक्ति के कॉलेजियम सिस्टम में बदलाव करने और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) पर फिर से बहस शुरू करने का मौका मिलेगा?क्या है मामला14 मार्च की रात करीब 11:30 बजे दिल्ली के 30, तुगलक क्रिसेंट में जस्टिस यशवंत वर्मा के घर के स्टोररूम में आग लगी. उस वक्त जज शहर से बाहर थे. दमकल विभाग ने आग बुझाई. एक रिपोर्ट और वीडियो में दावा किया गया कि वहां 4-5 बोरे जले हुए नोट मिले. अगली सुबह एक गार्ड ने कहा कि जला हुआ सामान हटा दिया गया. जस्टिस वर्मा ने कहा कि कोई नकदी नहीं मिली और यह उनके परिवार की नहीं थी. यह बात पूरे देश में चर्चा का विषय बन गई.प्रसिद्ध वकील हरीश साल्वे ने कहा कि अगर किसी आम इंसान के घर इतना पैसा मिलता तो जांच एजेंसियां तुरंत छापा मारतीं और गिरफ्तारी करतीं. लेकिन जजों के खिलाफ ऐसा नहीं होता. उनके खिलाफ कार्रवाई के लिए लंबी और जटिल जांच होती है.महाभियोगसंसद में महाभियोग प्रस्ताव लाया जाता है. इसे लोकसभा और राज्यसभा दोनों में दो-तिहाई बहुमत से पास करना होता है. यह सांसद भी शुरू कर सकते हैं, लेकिन इसके लिए लोकसभा के 100 या राज्यसभा के 50 सदस्यों की जरूरत होती है.जांच कमेटीफिर एक तीन सदस्यीय कमेटी दोबारा जांच करती है. अगर जज दोषी पाया जाता है, तो संसद में वोटिंग होती है. यह प्रक्रिया बहुत लंबी और मुश्किल है. ठोस सबूत चाहिए और संसद में सभी पार्टियों का समर्थन मिलना मुश्किल होता है.पहले क्या हुआ था?जस्टिस वी रामास्वामी सुप्रीम कोर्ट के पहले ऐसे जज थे जिनके खिलाफ महाभियोग लाया गया था. वह जांच में दोषी पाए गए, लेकिन कांग्रेस के समर्थन न देने से महाभियोग का प्रस्ताव लोकसभा में गिर गया. सीजेआई ने उन्हें रिटायर होने तक काम नहीं दिया. इसके बाद जस्टिस सौमित्र सेन का केस आया. राज्यसभा ने उन्हें हटाने के लिए वोट किया, लेकिन लोकसभा में वोटिंग से पहले उन्होंने इस्तीफा दे दिया. जस्टिस सीवी नागार्जुन का मामला भी चर्चित है. 2017 में उनके खिलाप महाभियोग शुरू हुआ, लेकिन सांसदों ने हस्ताक्षर वापस ले लिए तो विफल रहा. बतौर सीजेआई जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ पहला महाभियोग आया था, लेकिन राज्यसभा के सभापति ने शुरू में ही खारिज कर दिया. इसी तरह जस्टिस पीडी दिनाकरन ने जांच शुरू होने से पहले ही इस्तीफा दे दिया. इन मामलों से पता चलता है कि जज इस्तीफा देकर जवाबदेही से बच सकते हैं. तो क्या जजों को चुनने का सिस्टम ऐसा नहीं होना चाहिए जो शुरू से ही सही लोगों को चुने?एनजेएसी क्या था?2014 में मोदी सरकार ने नेशनल ज्यूडिशियल अप्वाइंटमेंट कमिशन (एनजेएसी) कानून बनाया था. इसमें कहा गया था कि जजों के नाम छह लोगों की एक समिति सुझाएगी. इस समिति में भारत के प्रधान न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट के दो सीनियर जज, कानून मंत्री, दो सम्मानित व्यक्ति होंगे. इन सदस्यों का चयन चीफ जस्टिस, पीएम और विपक्ष के नेता करते.खास बात यह थी कि अगर समिति के दो सदस्य किसी नाम को नकार देते, तो वह जज नहीं बन सकता. लेकिन 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया. कोर्ट ने कहा कि सरकार का इसमें दखल न्यायपालिका की स्वतंत्रता को नुकसान पहुंचाता है. सरकार का कहना था कि एनजेएसी से प्रक्रिया पारदर्शी होती, लेकिन कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया.दूसरे देशों में कैसे होता है?इंग्लैंड में पांच लोगों का एक चयन आयोग जजों को चुनता है. कनाडा में गवर्नर और पांच सांसदों का पैनल जजों को नियुक्ति करता है. अमेरिका में राष्ट्रपति नाम चुनते हैं, सीनेट उसे मंजूरी देता है. जर्मनी में आधे जज सरकार और आधे संसद चुनती है. ऐसे में सबसे बड़ा सवाल है कि भारत में भी क्या ऐसा सिस्टम नहीं होना चाहिए?क्या होगा आगे?यशवंत वर्मा का मामला सरकार के लिए कॉलेजियम सिस्टम में सुधार का मौका हो सकता है. सरकार फिर से एनजेएसी लाने की कोशिश कर सकती है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट इसे पहले रद्द कर चुका है, तो यह आसान नहीं होगा. यह विवाद सरकार और न्यापालिका को जजों की नियुक्ति पर साथ मिलकर सोचने के लिए मजबूर कर सकता है. अब देखना है कि क्या बदलाव होता है या नहीं.